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इंस्टेंट ट्रिपल तलाक पर ऐतिहासिक फैसला भारत को उन 22 देशों की सूची में खड़ा कर रहा है, जहाँ शर्तों के साथ ट्रिपल तलाक को प्रतिबंधित ही नहीं किया गया, बल्कि कुछ देशों में इसे वैध ही नहीं माना। इस दिशा में पहला कदम इजिप्ट में उठाया गया था। 22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मुस्लिम महिलायें भय मुक्त हो गयीं। उनका शौहर क्षणिक आवेश में तीन बार में तलाक, तलाक, तलाक कहकर रिश्ता तोड़ सकता था। मौलाना ट्रिपल तलाक का विरोध कर इसे गुनाह मानते हैं, लेकिन एक बार तीन तलाक हो जाने पर तलाक लौट नहीं सकता। धर्म का सहारा लेकर तर्क देते रहे हैं कि तलाक तो हो गया न।
1937, ब्रिटिश हकूमत के समय भारत में ‘मुस्लिम पर्सनल ला एप्लीकेशन एक्ट’ पास हुआ था। ब्रिटिश सरकार की कोशिश थी भारत की विभिन्न संस्कृतियों की प्रचलित प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार राज चलाया जाये, जिससे उनकी शासन पर पकड़ मजबूत हो सकेगी। मुस्लिमों की शादी, तलाक, और विरासत व् पारिवारिक विवादों के फैसले इसी एक्ट के अनुसार होंगे, उनके व्यक्तिगत मामलों से सरकार अलग ही रहेगी। आजादी के बाद संविधान निर्मातों ने मुस्लिम पर्सनल ला एक्ट को उसी रूप में स्वीकार कर लिया। जब भी ट्रिपल तलाक का विरोध हुआ मौलानाओं ने उसी कानून और अल्पसंख्यकों मौलिक अधिकारों की दुहाई दी। उनका तर्क यह भी है कि विश्व के हर राष्ट्र में नागरिकों को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने का अधिकार है।
कुरान में इंस्टेंट तलाक का कहीं जिक्र नहीं है। हाँ यदि शौहर और बीवी में मनमुटाव हो जाये, एक साथ रहना सम्भव न हो तो नियमानुसार तलाक हो सकता है। दोनों ही पक्षों का एक-एक जज नियुक्त किया जायेगा। वह दोनों पक्षों की के झगड़े के कारण सुनकर सुलह करा सकते हैं, फिर भी यदि बात न बनें तो शौहर को पत्नी के पाक होने का इंतजार करना पड़ेगा। आसूदा लोगों को गवाह बनाकर उनके सामने पत्नी को पहला तलाक दे। तीन तलाक तक तीन महीने पत्नी शौहर के घर पर रहेगी, लेकिन उनके आपस में सम्बन्ध नहीं होंगे। यदि पत्नी हामला है, तब बच्चे के जन्म तक उसके खर्च शौहर को उठाने पड़ेंगे। इस बीच दोनों परिवारों के लोग उनमें सुलह कराने की कोशिश करें। यदि सुलह हो जाये और दोनों साथ रह सकते हैं, तो इसकी सूचना गवाहों को देनी पड़ेगी। यदि सुलह न हो दूसरा तलाक फिर गवाहों के सामने दिया जायेगा। सुलह की कोशिश जारी रहेगी। तीसरे महीने तीसरा तलाक कहने पर रिश्ता खत्म माना जायेगा। तलाक देने का अधिकार मर्द को ही है। दो बार तलाक के बीच में सुलह हो सकती है। तीसरी बार नहीं, इसी को एक मुश्त तीन तलाक मान लिया।
हलाला- यह प्रथा ट्रिपल तलाक के कारण ही बढ़ी। शौहर को महसूस हुआ कि उसकी गलती थी उसने जल्दबाजी में अपने बच्चों की माँ से नाता तोड़ लिया। अब हलाला द्वारा ही तलाक शुदा बीवी अपने पहले शौहर के पास लौट सकती है। इसके लिए औरत को दूसरे मर्द से शादी कर उसके साथ रहना पड़ेगा। यदि फिर तलाक हो जाए, तभी वह अपने पहले शौहर के पास लौट सकती है। महिलायें मजबूरी में बच्चों की खातिर हलाला मानसिक कष्ट के बावजूद हलाला स्वीकार कर लेती हैं। खता मर्द की थी, सजा औरत को मिली।
क्या मर्द के समान औरत को तलाक का अधिकार है? इसके लिए खुला का विधान है, लेकिन तलाक का अधिकार मर्द की रजामंदी से औरत को मिलेगा। कई ऐसी शादियाँ देखने में आयीं मर्द ने औरत को खुला का अधिकार नहीं दिया। वह दूसरी शादी कर पत्नी को छोड़ गया। वह औरत न सधवा है, न विधवा। काजी ही तय करेंगे औरत को तलाक मिलना चाहिए। महिलाओं को कितनी भी हक देने की दुहाई दी, जाये लेकिन मर्द की तरह तीन बार तलाक कहकर निकाह तोड़ने का अधिकार नहीं है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन तलाक के एक केस में टिप्पणी करते हुए इसे महिलाओं के साथ होने वाली ज्यादती माना था। कोई भी कानून ‘पर्सनल ला’ संविधान से ऊपर नहीं है। न महिलायें मौलानाओं के रहमों करम पर हैं।
सुप्रीम कोर्ट में ट्रिपल तलाक से सम्बन्धित मामले की सुनवाई अलग-अलग धर्मों को मानने वाले पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा की गयी। इनमें तलाक-ए-बिद्दत, हलाला, बहुविवाह और मुताह विषय थे। सुप्रीम कोर्ट के सामने सात मामले थे। पहला केस उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानू का था। सरकार का पक्ष मुकुल रोहतगी द्वारा रखा गया। मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल थे। सलमान खुर्शीद ने महिलाओं का पक्ष रखा। अपनी बहस में ट्रिपल तलाक को गुनाह करार दिया। 11 मई से छह दिन तक लगातार सुनवाई जारी रही। हरेक दलील को सुना गया। अंत में सुप्रीम कोर्ट के पाँचों जजों ने 22 अगस्त साढ़े दस बजे बहुचर्चित मामले का फैसला सुनाया।
पहले चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने तीन तलाक को धार्मिक प्रक्रिया और धार्मिक भावनाओं से जुड़ा मुद्दा माना। कानून बनाने का काम सरकार का है, लेकिन छह माह में कानून बन जाना चाहिए। इस अरसे में ट्रिपल तलाक नहीं होंगे। यही निर्णय मुस्लिम जज का था। एक बार सब खामोश हो गये। दो जजों ने तलाक को संवैधानिक माना, लेकिन तीन जजों ने इसे असंवैधानिक करार दिया। अर्थात आज से एक मुश्त ट्रिपल तलाक खत्म। महिलाओं में ख़ुशी छा गयी। हर धर्म की महिलाओं ने अपनी मुस्लिम बहनों को मुबारकबाद दी। जो महिलायें अपने पर होने वाले जुल्मों पर जुबान सिल चुकी थीं। उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। कोर्ट ने अपना जजमेंट केवल तलाक-ए बिदद्त पर दिया, तलाक के दूसरे तरीके तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-हसन जारी रहेंगे।
बरसों से ट्रिपल तलाक के डर के साये में गृहस्थी काटती महिलाओं में ख़ुशी छा गयी। सरकारों ने कभी विषय को छेड़ने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन 1985 में 62 वर्षीय शाहबानो का तलाक के बाद अपने पूर्व पति से गुजार भत्ते का मामला सुप्रीम कोर्ट में आया। उसकी दायर याचिका गुजारे भत्ते की मांग को जायज ठहराया गया था। मुस्लिम समाज में फैसले का जमकर विरोध हुआ। इसे धर्म के खिलाफ माना। उलेमा वर्ग का तर्क था हमारे मजहब में शादी शौहर बीबी के बीच जन्म जन्मान्तर का बंधन नहीं है, बल्कि पक्का समझौता है। शाहबानों मामला पर्सनल ला के खिलाफ है।
उस समय की राजीव गांधी की सरकार के पास जमकर बहुमत था, लेकिन दबाब में सरकार पीछे हट गयी। संसद में एक कानून पास कर कि मुस्लिम महिला प्रोटेक्शन आॅफ राइट्स आॅन डाइवोर्सी एक्ट 1986 के अनुसार शौहर गुजारा भत्ता केवल 90 दिन तलाक ऐ-इद्दत की अवधि तक देगा। एक्ट के पास होते ही शाहबानों के पक्ष में दिया गया फैसला अपने आप खारिज हो गया। क्रान्तिकारी कदम पहला था आखिरी नहीं। महिलायें हलाला , बहुविवाह मुता के खिलाफ भी संघर्ष करेंगी, कुछ लोग इसे समान आचार संहिता की तरफ बढ़ता हुआ कदम मान रहे हैं। मौलानाओं ने नई बहस छेड़ दी है। जब तक कानून नहीं बनता या दंड का प्रावधान नहीं होता है, तब तक तीन तलाक को रोकना मुश्किल है। भारत का सुप्रीम कोर्ट भारतीय संविधान का रक्षक है। उसके द्वारा दिया गया निर्णय न मानना दंडनीय है।
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