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राम ने हाथ जोड़कर कहा- आप धर्म का स्वरूप हैं

Vichar Manthan
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कोपभवन में जाकर रानी ने राजसी वस्त्र उतारकर काले वस्त्र धारण किये, आभूषण फेक दिए, वह लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगी। रात को महाराज रानी के महल में आये पूरे महल में उदासी छाई थी। महाराज के मन में अनजाना भय जगा। उनकी प्रिय महारानी जमीन पर घायल नागिन की तरह फुंफकार रही थी।


Ram Laxman Sita in jungle


राजा के बार-बार अनुनय करने पर कैकई ने कहा मेरे दो वरदान क्या आपको याद हैं? मैं जो मांगूंगी आप दे नहीं सकेंगे। राजा ने राम की सौगंध लेकर कहा, महारानी मांगों, तुम्हें क्या चाहिए। मेरे लिए कुछ भी देना असम्भव नहीं है। तब धनुष से छूटे दो बाण की तरह दो वरदान महाराज के सीने में उतर गये।


मेरे पुत्र भरत को राजतिलक, राम के लिए तापस वेश में 14 वर्ष का बववास। निरपराध राम के लिए वनवास किस लिए रानी? यह वरदान नहीं तुम अपने लिए वैधव्य मांग रही हो। महाराज ने अनुनय करने पर भी निष्ठुर रानी स्थिर बनी रही। बेहाल राजा सूर्य नारायण से प्रार्थना करने लगे इस रात का कभी अंत न हो।


जब देर तक महाराज जगे नहीं, महामंत्री सुमंत कैकई के भवन में पहुंचे, देखा कोपभवन में महाराज श्री हीन, दयनीय हैं। उनका गला रुंधा हुआ था। महारानी ने आज्ञा दी राम को शीघ्र बुला लाओ। राम ने आकर नतमस्तक होकर दोनों को प्रणाम किया। महाराज की दीन दशा का कारण पूछा, महाराज निरुत्तर थे।


कैकई बोलीं, राम मेरे दो वरदान महाराज पर उधार थे। मैंने मांगे, अपने पुत्र के लिए राज्य, तुम्हारे लिए वनवास, मैने कहां भूल की? नहीं माता नहीं, राम ने वनवास स्वीकार किया, लेकिन राम अकेले वन नहीं गये, उनकी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण अपना-अपना धर्म निभाने साथ जा रहे थे।


सारे नगर में अशुभ समाचार फैल गया। नगरवासियों ने राजमहल को चारों ओर से घेर लिया। महाराज ने सुमंत को आज्ञा दी, सबसे तेज रथ पर राम को ले जाकर वन में घुमाकर लौटा लाओ। राम वन जाने के लिए आज्ञा लेने महाराज के पास महल में गये।


महाराज व्याकुल होकर कांप रहे थे। उन्होंने कहा, पुत्र वचन मैंने दिए थे, तुमने नहीं। राम ने हाथ जोड़कर कहा, आप धर्म का स्वरूप हैं। मेरा कर्तव्य है आपके हर वचन का पालन करना। 14 वर्ष बीत जाने के बाद लौटकर आपके चरण स्पर्श करूंगा, लेकिन आपसे मेरी प्रार्थना है, आप माता कैकई को अपशब्द नहीं कहेंगे, भरत को स्नेह देंगे।


महाराज सीता को मेरे साथ जाने की आज्ञा दीजिये, हमारी रक्षा के लिए लक्ष्मण भी जा रहे हैं। महाराज ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, दोनों अपना धर्म निभा रहें हैं, अच्छा महाराज विदा। सीता ने महाराज के चरण छूते हुए कहा, अब मेरा घर वन है पिता श्री, आज्ञा दें। लक्ष्मण ने प्रणाम करते हुए कहा, महाराज आप हजारों वर्ष तक राज करें। बेसुध होकर महाराज तड़प उठे, सब कुछ समाप्त हो गया।


महल के पीछे के भाग में जाकर राजपुत्रों ने राजसी वस्त्र त्यागकर कमर पर काले हिरन की खाल लपेटी, वही ओढ़ी, जिसे जूट की रस्सी से बांध लिया। पैरों में खडाऊं पहनी, लेकिन गुरु वशिष्ठ ने राजलक्ष्मी सीता को राजसी परिधान में जाने की आज्ञा दी। उन्होंने राम से कहा कि उन सभी अस्त्र-शस्त्रों को सदैव ध्यान रखना जिनकी विश्वामित्र ने तुम्हे शिक्षा दी थी।


महामंत्री सुमंत अब शांत थे, उन पर राजाज्ञा के पालन का दायित्व था, वह रथ ले आये। रथ में चार लाल घोड़े बंधे थे, जो सरपट उड़ने को तैयार थे। महामंत्री ने कहा, राजकुमार मैं आपको वन की ओर ले चलूंगा, परन्तु इतना आसान नहीं है। अयोध्या के हर कूचे में पुरुष चीख रहे हैं, औरतें विलाप कर रहीं हैं। राज्य की सभ्रांत प्रजा, व्यापारी और योद्धा परिवार सहित आपके साथ वन जाने के लिए राजमहल को घेरे हुए हैं। ऐ राजकुमार सद्गुण के अवतार, ऐसी महान विदा फिर कभी इतिहास में देखने को नहीं मिलेगी।


लक्ष्मण ने रथ के एक कोने में अग्नि का पात्र रखा, अपने धनुष बाण तरकश रथ के सामने रखे। गुरु ने सहारे से सीता को रथ पर बिठाया। तीनों को आशीर्वाद दिया। राजमहल के पीछे के हिस्से से द्वार पार करता हुआ रथ दक्षिण द्वार की ओर आगे बढ़ा। महामंत्री ने घोड़ों की लगाम खींची, संकेत मिलते ही हवा के वेग से घोड़े उड़ने लगे।


महाराज को होश आया, वह कक्ष से निकलकर छज्जे पर आ गये। जाते हुए रथ को देखकर चीखे, ठहरो-ठहरो, रोको, द्वार के रक्षक भागे, लेकिन द्वार बंद करने का समय नहीं था। वे रथ के वेग को रोकने के लिए रथ के सामने आकर उसे घेरने का प्रयत्न करने लगे, लेकिन क्रोध में महामंत्री दोनों तरफ कोड़े फटकारते हुए रथ को राजमार्ग पर ले आये। उन्होंने देखने का प्रयत्न ही नहीं किया कोड़ा किस पर पड़ रहा है।


सीता से कहा, पुत्री कसकर दंड को पकड़ो, उनके सफेद बाल हवा में लहरा रहे थे, घोड़े पवन वेग की तरह उड़ रहे थे। रथ के पीछे तैयार अयोध्यावासी वाहन सवार और पैदल रथ का पीछा करने लगे। रथ चौड़े राजमार्ग से निकलकर छोटे मार्गों से कच्चे मार्गों पर दक्षिण दिशा की ओर भाग रहा था। नगरी पीछे छूट गयी, ग्राम दिखाई देने लगे। ऊंचे-ऊंचे वृक्षों पर बैठे पक्षी चहचहाना भूलकर पंखों को समेटकर सहम गये। चारों तरफ शोर और क्रन्दन और कुछ नहीं था, था तो आगे राजपुत्रों के लिए अनिश्चित भविष्य था, जिसे अपने पुरुषार्थ से उन्हें बनाना था।


बेहाल महाराज क्रन्दन करते हुए भूमि पर गिर पड़े। उनकी आँखों में खून उतर आया। आँखों से दिखाई देना बंद हो गया। शरीर सुन्न हो गया, पक्षाघात।

राम राम कहि, राम कहि राम राम कहि राम,

तनु परिहरी रघुवर बिरह राऊ गयऊ सुर धाम।

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